9 September 2017

1716 - 1720 लफ्ज बरस बूँदें मौसम खैरात खुशी पसंद गम नवाब दुआ उमर बेजुबान पत्थर गहने देहलीज तरस शायरी


1716
लफ्ज जब बरसते हैं,
बूँदें बनकर . . .
मौसम कोई भी हो,
मन भीग ही जाता हैं . . . !

1717
खैरातमें मिली हुई खुशी,
हमे पसंद नहीं हैं,
क्यूँकि हम गममें भी...
नवाबकी तरह जीते हैं l

1718
तुम्हें मालूम हैं,
तुम वो दुआ हो मेरी...
जिसको उमरभर,
माँगा हैं मैंने !

1719
बेजुबान पत्थरपें लदे हैं,
करोंडोंके गहने मंदिरोमें l
उसी देहलीजपें एक रूपयेको
तरसते नन्हें हाथोंको देखा हैं ll

1720
हम उनकी ज़िन्दगीमें,
सदा अंजानसे रहे...
और वो हमारे दिलमें
कितनी शानसे रहे . . . !

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