7491
क़भी चिरागोंक़ें बहानें,
मिल जाया क़रती थी हसरतोंक़ो मंज़िलें...
आज़ रौशनी हैं गज़ब मगर,
साया ही नज़र नहीं आता क़ोई.......
7492इक़ लफ़्ज़-ए-मोहब्बतक़े,बने लाख़ फ़साने...तोहमतक़े बहाने,क़भी शोहरतक़े बहाने.......महेंद्र प्रताप चाँद
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बहाने क़्याें ढूँढता हैं वो,
मुझसे दूर ज़ानेक़ा...
साफ़ क़हता नहीं क़ि,
अब मन नहीं हैं बात क़रनेक़ा...
7494लौटी हैं दिलमें धड़क़न,ख़्वाबोंमें उनक़े आनेसे...!ज़िन्दगी क़ुछ दूर तलक़,चलेगी इसी बहानेसे.......!!!
7495
ज़रासी ग़लतीपें रूठ बैठे...
क़्या उसे बस बहाना चाहिए था...?
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