9326
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़मक़ा,
पर्दा हो हीं ज़ाता हैं...l
ग़ज़ल क़ह लें तो ज़ीक़ा बोझ,
हल्क़ा हो हीं ज़ाता हैं...ll
शाज़ तमक़नत
9327लख़नऊमें फ़िर हुई,आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न...बाद मुद्दत फ़िर हुआ,ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे...चक़बस्त ब्रिज़ नारायण
9328
ग़ालिब तिरी ज़मीनपें,
लिक्ख़ी तो हैं ग़ज़ल l
तेरे क़द-ए-सुख़नक़े,
बराबर नहीं हूँ मैं ll
9329ज़ो लुग़तक़ो तोड़-मरोड़ दे,ज़ो ग़ज़लक़ो नस्रसे ज़ोड़ दे,मैं वो बद-मज़ाक़-ए-सुख़न नहीं,वो ज़दीदिया क़ोई और हैं llख़ालिद इरफ़ान
9330
उतार लफ़्ज़ोंक़ा इक़ ज़ख़ीरा,
ग़ज़लक़ो ताज़ा ख़याल दे दे ;
ख़ुद अपनी शोहरतपें रश्क़ आए,
सुख़नमें ऐसा क़माल दे दे ll
तैमूर हसन
No comments:
Post a Comment