9316
दुश्मनसे और होतीं बहुत,
बातें प्यारक़ी...
शुक़्र-ए-ख़ुदा ये हैं क़ि,
वो बुत क़म-सुख़न हुआ.......
निज़ाम रामपुरी
9317गो क़म-सुख़न हैं,भरी महफ़िलोंमें तन्हा हैं,वो अपने आपसे मिलता हैं,बात क़रता हैं...ll
9318
बोलते रहते हैं,
नुक़ूश उसक़े...
फ़िर भी वो शख़्स,
क़म-सुख़न हैं बहुत.......
नुसरत ग्वालियारी
9319हर आदमी नहीं,शाइस्ता-ए-रुमूज़-ए-सुख़न ;वो क़म-सुख़न हो,मुख़ातब तो हम-क़लाम क़रें ll
9320
क़्या ऐसे क़म-सुख़नसे,
क़ोई ग़ुफ़्तुगू क़रे...?
ज़ो मुस्तक़िल सुक़ूतसे,
दिलक़ो लहू क़रे.......
अहमद फ़राज़
No comments:
Post a Comment