30 October 2022

9311 - 9315 हर्फ़ अंज़ुमन बज़्म सुख़न शायरी

 

9311
मिरे सारे हर्फ़,
तमाम हर्फ़ अज़ाब थे...
मिरे क़म-सुख़नने,
सुख़न क़िया तो ख़बर हुई...
                 इफ़्तिख़ार आरिफ़

9312
ज़ब अंज़ुमन,
तवज़्ज़ोह--सद-ग़ुफ़्तुगूमें हो ;
मेरी तरफ़ भी,
इक़ निग़ह--क़म-सुख़न पड़े ll
मज़ीद अमज़द

9313
अहल--ज़रने देख़क़र,
क़म-ज़रफ़ी--अहल--क़लम...
हिर्स--ज़रक़े हर तराज़ूमें,
सुख़न-वर रख़ दिए.......
                               बख़्श लाइलपूरी

9314
सोचा था क़ि,
उस बज़्ममें ख़ामोश रहेंगे...
मौज़ू--सुख़न बनक़े,
रहीं क़म-सुख़नी भी.......
मोहसिन भोपाली

9315
वो क़म-सुख़न था मग़र,
ऐसा क़म-सुख़न भी था...
क़ि सच हीं बोलता था,
ज़ब भी बोलता था बहुत...!
                 अख़्तर होशियारपुरी

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