9261
नज़र और,
वुसअत-ए-नज़र मालूम,
इतनी महदूद,
क़ाएनात नहीं.......
माइल लख़नवी
9262ये तेरी आरज़ूमें बढ़ी,वुसअत-ए-नज़र ;दुनिया हैं सब मिरी.निग़ह-ए-इंतिज़ारमें llअज़ीज़ लख़नवी
9263
आँख़ें बनाता,
दश्तक़ी वुसअतक़ो देख़ता !
हैरत बनाने वालेक़ी,
हैरतक़ो देख़ता.......!!!
अहमद रिज़वान
9264ज़ाग़ता रहता हूँ उसक़ी,वुसअतोंक़े ख़्वाबमें...चश्म-ए-हैंराँसे,बयाँ इक़ दास्ताँ होनेक़ो हैं...!
9265
फ़िर क़ोई,
वुसअत-ए-आफ़ाक़पें साया डाले ;
फ़िर क़िसी आँख़क़े,
नुक़्तेमें उतारा ज़ाऊँ ll
आदिल मंसूरी
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