20 October 2022

9271 - 9275 लम्हा ज़ल्वा सहरा आसमाँ ज़मीं क़दम वुसअत शायरी

 

9271
लम्हा लम्हा,
वुसअत--क़ौन--मक़ाँक़ी सैर क़ी...
ग़या सो ख़ूब मैंने,
ख़ाक़-दाँक़ी सैर क़ी.......
                            दिलावर अली आज़र

9272
वुसअत--क़ौन--मक़ाँमें,
वो समाते भी नहीं ;
ज़ल्वा-अफ़रोज़ भी हैं,
सामने आते भी नहीं.......!
शायर फतहपुरी

9273
क़हूँ क़्या वहशत--वीरान,
पैमाई क़हाँ तक़ हैं...
क़ि वुसअत मेरे सहराक़ी,
मक़ाँसे ला-मक़ाँ तक़ हैं.......
                            वली वारिसी

9274
आसमाँ और ज़मींक़ी,
वुसअत देख़...
मैं इधर भी हूँ,
और उधर भी हूँ.......!!!
तहज़ीब हाफ़ी

9275
इस तंग़-ना--दहरसे,
बाहर क़दमक़ो रख़...
हैं आसमाँ ज़मींसे परे,
वुसअत--मज़ार.......
                 ख़्वाज़ा रुक़नुद्दीन इश्क़

No comments:

Post a Comment