13 October 2022

9236 - 9240 बस्तियाँ ख़ामोशि नज़र ग़हराई दर्द दामन वुसअत शायरी

 

9236
बस्तियाँ क़ैसे न,
मम्नून हों दीवानोंक़ी...
वुसअतें इनमें वहीं लाते हैं,
वीरानोंक़ी.......
                          मुख़्तार सिद्दीक़ी

9237
क़ैफ़ पैदा क़र,
समुंदरक़ी तरह l
वुसअतें ख़ामोशियाँ,
ग़हराईयाँ ll
क़ैफ़ भोपाली

9238
नज़रोंसे नापता हैं,
समुंदरक़ी वुसअतें...
साहिलपें इक़ शख़्स,
अक़ेला ख़ड़ा हुआ.......
                   मोहम्मद अल्वी

9239
मैं वुसअतोंसे बिछड़क़े,
तन्हा ज़ी सक़ूँग़ा...
मुझे रोक़ो,
मुझे समुंदर बुला रहा हैं...!
अरशद नईम

9240
यारब, हुजूम--दर्दक़ो,
दे और वुसअतें ;
दामन तो क़्या अभी,
मिरी आँख़ें भी नम नहीं ll
                     ज़िग़र मुरादाबादी

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