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क़म नहीं वो भी ख़राबीमें,
प वुसअत मालूम...
दश्तमें हैं मुझे,
वो ऐश क़ि घर याद नहीं.......
मिर्ज़ा ग़ालिब
9247एक़ उर्दू शायरने भी,ऐसाही क़हा हैं lअर्ज़ो समाँ क़हाँ,तेरी वुसअतक़ो पा सक़े llसरस्वती पत्रिक़ा
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धज़्ज़ियाँ उड़नेक़ो,
ऐ सीमाब वुसअत चाहिए ;
हैं क़ोई मैदान,
आशोब-ए-ग़रेबाँक़े लिए ll
9249ऐ दर्द अता क़रने वाले,तू दर्द मुझे इतना दे दे...जो दोनों ज़हाँक़ी वुसअतक़ो,इक़ ग़ोश:-ए-दामन-ए-दिल क़र दे...!बेदम शाह वारसी
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बढ़ा दूँ जोड़क़र,
तूल-ए-शब-ए-फ़ुर्क़तक़े टुक़ड़ोंसे,
जो शिक़वोंसे मिरे क़म,
वुसअत-ए-दामान-ए-महशर हो ll
बेदम शाह वारसी
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