9231
सिलसिला ये चाहतक़ा,
दोनो तरफ से था l
वो मेरी ज़ान चाहती थी,
और मैं ज़ानसे ज्यादा उसे...ll
9232ये क़ैसा सिलसिला हैं,तेरे और मेरे दरमियाँ...फ़ासले भी बहुत हैं,और मोहब्बत भी...!
9233
थम ग़या सिलसिला,
मुहब्बतक़ी शिक़ायतोंक़ा...!
ज़ो लोग़ शिक़ायत क़रते थे,
वो आज़ ख़ुद मुहब्बत क़रते हैं...!!!
9234
"लोग़ोंक़ी नज़रोंमें
फ़र्क़ अब भी नहीं हैं ...
पहले मुड़क़र देख़ते थे ...
अब देख़क़र मुड़ ज़ाते हैं ... "
9235
हसरतोंक़ा सिलसिला,
क़ब ख़त्म होता हैं ज़लील...
ख़िल ग़ये ज़ब ग़ुल तो,
पैदा और क़लियाँ हो ग़ईं.......
ज़लील मानिक़पुरी
No comments:
Post a Comment