14 October 2022

9241 - 9245 दिल तमन्ना दरिया ख़्वाहिश तन्हाई क़ुबूल क़िस्मत वुसअत शायरी

 

9241
वुसअत--दिल,
और तमन्नाएँ तिरी...
ये हुजूम और,
आस्तान--मुख़्तसर...
                 मयकश अकबराबादी

9242
दरियाक़ी वुसअतोंसे,
उसे नापते नहीं...
तन्हाई क़ितनी ग़हरी हैं,
इक़ ज़ाम भरक़े देख़.......!

9243
इक ज़र्रेमें सहराओंकी,
वुसअत आन समाई...
इक क़तरेमें डूबके,
रह गई सागरकी गहराई...
                   वासिफ़ अली वासिफ़

9244
मुझक़ो नहीं क़ुबूल,
दो-आलमक़ी वुसअतें ;
क़िस्मतमें क़ू--यारक़ी,
दो-ग़ज़ ज़मीं रहे ll
ज़िग़र मुरादाबादी

9245
मेरी ख़्वाहिश थी कि,
लूटूँ लज़्ज़त--दुनिया मगर...
वुसअत--हिर्स--हवासे,
तंग दामाँ हो गया.......
             गोरबचन सिंह दयाल मग़्मूम

No comments:

Post a Comment