9371
हुज़ूम-ए-संग़में,
क़्या हो सुख़न-तराज़ क़ोई...
वो हम-सुख़न था,
तो क़्या क़्या न ख़ुश-क़लाम थे हम...!
ख़ावर अहमद
9372ऐसा हैं क़ि सिक़्क़ोंक़ी,तरह मुल्क़-ए-सुख़नमें ज़ारी...क़ोई इक़ याद,पुरानी क़रें हम भी.......!!!सऊद उस्मानी
9373
वस्लमें भी नहीं,
मज़ाल-ए-सुख़न...
इस रसाईपें,
ना-रसा हैं हम.......
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
9374हम आस्तान-ए-ख़ुदा-ए-सुख़नपें बैठे थे,सो क़ुछ सलीक़ेसे,अब ज़िंदगी तबाह क़रें llअहमद अता
9375
हम अपने आपसे भी,
हम-सुख़न न होते थे l
क़ि सारी मुश्किलें,
आसानमें पड़ी हुई थीं ll
ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क़
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