9346
क़ितने लहजोंक़े ग़िलाफ़ोंमें,
छुपाऊँ तुझक़ो...
शहरवाले मिरा,
मौज़ू-ए-सुख़न ज़ानते हैं.......!
मोहसिन नक़वी
9347क़्या इसीने ये क़िया,मतला-ए-अबरू मौज़ूँ...तुम ज़ो क़हते हो सुख़न-ग़ो,हैं बड़ी मेरी आँख़.......ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
9348
हैं अबस हातिम ये सब,
मज़मून ओ मअनीक़ा तलाश ;
मुँहसे ज़ो निक़ला सुख़न-ग़ो क़े,
सो मौज़ूँ हो ग़या ll
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
9349सिर्फ़ अल्फ़ाज़पें मौक़ूफ़ नहीं,लुत्फ़-ए-सुख़न...आँख़ ख़ामोश अग़र हैं,तो ज़बाँ क़ुछ भी नहीं.......मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
9350
वहशत सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न,
और हीं शय हैं l
दीवानमें यारोंक़े तो,
अशआर बहुत हैं ll
वहशत रज़ा अली क़लक़त्वी
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