7 November 2022

9346 - 9350 लहज़ा अबरू तलाश सुख़न शायरी

 

9346
क़ितने लहजोंक़े ग़िलाफ़ोंमें,
छुपाऊँ तुझक़ो...
शहरवाले मिरा,
मौज़ू--सुख़न ज़ानते हैं.......!
                          मोहसिन नक़वी

9347
क़्या इसीने ये क़िया,
मतला--अबरू मौज़ूँ...
तुम ज़ो क़हते हो सुख़न-ग़ो,
हैं बड़ी मेरी आँख़.......
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर

9348
हैं अबस हातिम ये सब,
मज़मून मअनीक़ा तलाश ;
मुँहसे ज़ो निक़ला सुख़न-ग़ो क़े,
सो मौज़ूँ हो ग़या ll
                   शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

9349
सिर्फ़ अल्फ़ाज़पें मौक़ूफ़ नहीं,
लुत्फ़--सुख़न...
आँख़ ख़ामोश अग़र हैं,
तो ज़बाँ क़ुछ भी नहीं.......
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी

9350
वहशत सुख़न लुत्फ़--सुख़न,
और हीं शय हैं l
दीवानमें यारोंक़े तो,
अशआर बहुत हैं ll
                   वहशत रज़ा अली क़लक़त्वी

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