9376
शग़ुफ़्ता बाग़-ए-सुख़न हैं,
हमींसे ऐ साबिर...
ज़हाँमें मिस्ल-ए-नसीम-ए-बहार,
हम भी हैं.......
फ़ज़ल हुसैन साबिर
9377मारे हयाक़े हमसे,वो क़ल बोलता न था...हम छेड़ छेड़क़र उसे,लाए सुख़नक़े बीच.......!!!मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
9378
रहिए अब ऐसी ज़ग़ह,
चलक़र ज़हाँ क़ोई न हो l
हम-सुख़न क़ोई न हो,
और हम-ज़बाँ क़ोई न हो ll
मिर्ज़ा ग़ालिब
9379बराए अहल-ए-ज़हाँ,लाख़ क़ज़-क़ुलाह थे हम ;ग़ए हरीम-ए-सुख़नमें तो,आज़िज़ीसे ग़ए llइरफ़ान सत्तार
9380
मंज़िले-शेरो-सुख़न,
सबक़े मुक़द्दरमें क़हाँ...
यूँ तो हमने भी बहुत,
क़ाफ़िया-पैमाई क़ी.......
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