20 March 2021

7296 - 7300 दिल इश्क़ ज़िंदगी मोहब्बत बज़्म याद ग़लतफहमी बेक़सूर रज़ा सज़ा शायरी

 

7296
ग़लतफहमीयोंका बहाना बनाके,
नजरे चुराती हैं हमसे आप;
दिल चुराके मिलनेकी,
ज़ा बारबार देती हैं आप ll

7297
दिल-गिरफ़्ता ही सही,
बज़्म ज़ा ली ज़ाएँ...
याद--ज़ानाँसे कोई,
शाम ख़ाली ज़ाएँ...
अहमद फ़राज़

7298
ज़िंदा हूँ मगर, ज़िंदगीसे दूर हूँ मैं,
ज़ क्यों इस कदर मजबूर हूँ मैं,
बिना गलतीकी ज़ा मिलती हूँ मुझे...
किससे कहूँ की आखिर बेक़सूर हूँ मैं...

7299
इश्क़के खुदासे पूछो,
उसकी ज़ा क्या हैं...
इश्क़ अगर गुनाह हैं,
तो इसकी सज़ा क्या हैं...?


7300
मुझको मोहब्बतकी,
ऐसी
ज़ा ना दे...
या तो जी लेने दे,
या तो मर ज़ाने दे...!

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