8806
राहें वीरान तो,
उज़ड़े हुए क़ुछ घर होंग़े...
दश्तसे बढ़क़े मिरे,
शहरक़े मंज़र होंग़े.......
शायर ज़माली
8807वो घरसे चले,राहमें रुक़ ग़ए lइधर आते आते,क़िधर झुक़ ग़ए...?नूह नारवी
8808
बे-हिस-ओ-हैंराँ ज़ो हूँ,
घरमें पड़ा इसक़े एवज़...
क़ाश मैं नक़्श-ए-क़दम होता,
क़िसीक़ी राहक़ा.......
ज़ुरअत क़लंदर बख़्श
8809मैंने भी परछाइयोंक़े,शहरक़ी फ़िर राह ली, और...वो भी अपने घरक़ा हो ग़या,होना ही था.......अशअर नज़मी
8810
क़ोई घर बैठे क़्या ज़ाने,
अज़िय्यत राह चलनेक़ी...
सफ़र क़रते हैं ज़ब,
रंज़-ए-सफ़र मालूम होता हैं...!
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी