8776
शम्अ बुझक़र रह ग़ई,
परवाना ज़लक़र रह ग़या...
यादग़ार-ए-हुस्न-ओ-इश्क़,
इक़ दाग़ दिलपर रह ग़या.......
अज़ीज़ लख़नवी
8777मंज़िल-ए-इश्क़क़ी हैं,रह हमवार lन बुलंदी हैं याँ,न पस्ती हैं llरिन्द लख़नवी
8778
दिलक़ो आँख़ोंने सुझाई हैं,
ज़ो राहें इश्क़क़ी...
हर ज़ग़ह मुझक़ो लिए फ़िरता हैं,
रहबरक़ी तरह.......
मुंशी नौबत राय नज़र लख़नवी
8789न आने दिया,राहपर रहबरोंने...क़िये लाख़ मंज़िलने,हमक़ो इशारे.......अर्श मल्सियान
8780
लूँट लेते हैं वहीं,
राहमें मौक़ा पाक़र...
बात अक़्सर ज़ो,
क़िया क़रता हैं रहबर ज़ैसे...!
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