8741
रौशनी अब राहसे,
भटक़ा भी देती हैं मियाँ...
उसक़ी आँख़ोंक़ी चमक़ने,
मुझक़ो बेघर क़र दिया.......
ज़फ़र इक़बाल
8742मेरे हाथोंक़ी लक़ीरें थीं,वो राहें ऐ दोस्त...मेरे हाथोंक़ो तिरे हाथ,ज़हाँ छोड़ आए.......मुसव्विर सब्ज़वारी
8743
तुझ ज़ुल्फ़में दिलने,
ग़ुम क़िया राह...
इस प्रेम ग़ली,
कूँ इंतिहा नईं.......
सिराज़ औरंग़ाबादी
8744हों क़ितनी ही तारीक़,शब-ए-ज़ीस्तक़ी राहें...इक़ नूरसा रहता हैं,झलक़ता मिरे आग़े.......ज़ोश मलीहाबादी
8745
ग़ले लग़क़र हम उसक़े,
ख़ूब रोए l
ख़ुशी इक़ दिन मिली थी,
राह चलते...ll
सरफ़राज़ ज़ाहिद
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