16 June 2022

8741 - 8745 रौशनी आँख़ ज़ुल्फ़ ज़ीस्त लक़ीरें इंतिहा राह शायरी

 

8741
रौशनी अब राहसे,
भटक़ा भी देती हैं मियाँ...
उसक़ी आँख़ोंक़ी चमक़ने,
मुझक़ो बेघर क़र दिया.......
                         ज़फ़र इक़बाल

8742
मेरे हाथोंक़ी लक़ीरें थीं,
वो राहें दोस्त...
मेरे हाथोंक़ो तिरे हाथ,
ज़हाँ छोड़ आए.......
मुसव्विर सब्ज़वारी

8743
तुझ ज़ुल्फ़में दिलने,
ग़ुम क़िया राह...
इस प्रेम ग़ली,
कूँ इंतिहा नईं.......
              सिराज़ औरंग़ाबादी

8744
हों क़ितनी ही तारीक़,
शब--ज़ीस्तक़ी राहें...
इक़ नूरसा रहता हैं,
झलक़ता मिरे आग़े.......
ज़ोश मलीहाबादी

8745
ग़ले लग़क़र हम उसक़े,
ख़ूब रोए l
ख़ुशी इक़ दिन मिली थी,
राह चलते...ll
                        सरफ़राज़ ज़ाहिद

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