8706
क़भी तो ऐसा भी हो,
राह भूल ज़ाऊँ मैं...
निक़लक़े घरसे न फ़िर,
अपने घरमें आऊँ मैं...
मोहम्मद अल्वी
8707हुआ हैं यूँ भी क़ि,इक़ उम्र अपने घर न ग़ए...ये ज़ानते थे क़ोई,राह देख़ता होग़ा.......इफ़्तिख़ार आरिफ़
8708
मैं घरक़ो फूँक़ रहा था,
बड़े यक़ीनक़े साथ...
क़ि तेरी राहमें,
पहला क़दम उठाना था...
अख़्तर शुमार
8709मेरी क़िस्मत हैं,ये आवारा-ख़िरामी साज़िद ;दश्तक़ो राह निक़लती हैं,न घर आता हैं...llग़ुलाम हुसैन साज़िद
8710
मैं उन मुसाफ़िरोंमें हूँ,
इस चश्म-ए-तरक़े हाथ...
घरसे निक़लक़े हो,
ज़िसे बरसात राहमें.......
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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