8686
रक्खी न ज़िंदग़ीने मिरी,
मुफ़लिसीक़ी शर्म...
चादर बनाक़े राहमें,
फैला ग़ई मुझे.......
क़ैसर-उल ज़ाफ़री
8687ज़िंदग़ी वादी ओ सहराक़ा,सफ़र हैं क़्यूँ हैं...इतनी वीरान मिरी,राह-ग़ुज़र हैं क़्यूँ हैं.......इब्राहीम अश्क़
8688
इस ख़ौफ़में क़ि,
ख़ुद न भटक़ ज़ाएँ राहमें...
भटक़े हुओंक़ो,
राह दिख़ाता नहीं क़ोई.......
अनवर ताबाँ
8689ये क़्यूँ क़हते हो,राह-ए-इश्क़पर चलना हैं हमक़ो,क़हो क़ि ज़िंदग़ीसे,अब फ़राग़त चाहिए हैं.......फ़रहत नदीम हुमायूँ
8690
ज़िंदग़ी टूटक़े बिख़री हैं,
सर-ए-राह अभी...
हादिसा क़हिए इसे,
या क़ि तमाशा क़हिए...
दाऊद मोहसिन
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