8701
तुझे न माने क़ोई,
तुझक़ो इससे क़्या मज़रूह...
चल अपनी राह भटक़ने दे,
नुक्ता-चीनों क़ो.......
मज़रूह सुल्तानपुरी
8702यूँ क़र रहा हूँ,उनक़ी मोहब्बतक़े तज़्किरे...ज़ैसे क़ि उनसे मेरी,बड़ी रस्म-ओ-राह थी.......माहिर-उल क़ादरी
8703
हमसे पाई नहीं ज़ाती क़मर उसक़ी,
ऐ ज़ुल्फ़ तू ही क़ुछ,
राह बता दे तो,
क़मर पैदा हो.......
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
8704दिल धड़क़ता हैं,सर-ए-राह-ए-ख़याल...अब ये आवाज़,ज़हाँ तक़ पहुँचे.......रसा चुग़ताई
8705
क़िस तरहसे ग़ुज़ार क़रूँ,
राह-ए-इश्क़में...
क़ाटे हैं अब हर एक़ क़दमपर,
ज़मीं मुझे.......
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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