23 June 2022

8781 - 8785 वीरान राहबर राहज़न इख़्तियार मंज़िल शौक़ तलब राह शायरी

 

8781
राहबर रहज़न बन ज़ाए,
क़हीं इस सोचमें...
चुप ख़ड़ा हूँ भूलक़र,
रस्तेमें मंज़िलक़ा पता...
                          आरज़ू लख़नवी

8782
रहबरो रहज़न यहीं दो,
आफ़तें थी राहक़ी ;
राहरौ दो आफ़तोंक़े,
दर्मियाँ मारा ग़या ll
अब्दुल हमीद अदम

8783
वीरानसी हो चली हैं राहें,
रहबर हैं क़ोई राहज़न हैं...ll
                              रविश सिद्दीक़ी

8784
अब अपना इख़्तियार हैं,
चाहे ज़हाँ चलें...
रहबरसे अपनी राह,
ज़ुदा क़र चुक़े हैं हम.......
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

8785
मंज़िल तो बड़ी चीज़ हैं,
राहें नहीं मिलतीं l
ज़ब शौक़--तलब,
रहबर--मंज़िल नहीं होता ll
                                 बासित उज्जैनी

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