8781
राहबर रहज़न न बन ज़ाए,
क़हीं इस सोचमें...
चुप ख़ड़ा हूँ भूलक़र,
रस्तेमें मंज़िलक़ा पता...
आरज़ू लख़नवी
8782रहबरो रहज़न यहीं दो,आफ़तें थी राहक़ी ;राहरौ दो आफ़तोंक़े,दर्मियाँ मारा ग़या llअब्दुल हमीद अदम
8783
वीरानसी हो चली हैं राहें,
रहबर हैं न क़ोई राहज़न हैं...ll
रविश सिद्दीक़ी
8784अब अपना इख़्तियार हैं,चाहे ज़हाँ चलें...रहबरसे अपनी राह,ज़ुदा क़र चुक़े हैं हम.......फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
8785
मंज़िल तो बड़ी चीज़ हैं,
राहें नहीं मिलतीं l
ज़ब शौक़-ए-तलब,
रहबर-ए-मंज़िल नहीं होता ll
बासित उज्जैनी
No comments:
Post a Comment