9 November 2017

1926 - 1930 प्यार इजहार मोहब्बत बाजार एहसास बात ज़िक्र फिक्र खुदकुशी चेहरे गौर परछाई दाग चाह शायरी


1926
कुछ इस तरह,
वो मेरी बातोंका ज़िक्र किया करती हैं...
सुना हैं वो आज भी,
मेरी फिक्र किया करती हैं...!

1927
'दिखावे' की मोहब्बतका,
चलता हैं 'बाजार' यहाँ;
सच्चे एहसास रोज,
'खुदकुशी' करते हैं...!

1928
बहुत गौर किया,
तेरे चेहरेपें...
तब पता चला...
तेरे चेहरेकी परछाई,
चाँदपें दाग बन गया...

1929
उन्हे चाहना हमारी कमजोरी हैं,
उनसे कह नहीं पाना हमारी मजबूरी हैं,
वो क्यूँ नहीं समझते हमारी खामोशीको,
क्या प्यारका इजहार करना जरुरी हैं ?

1930
उनकी शानमें क्या नज़्म कहूँ,
अल्फाज नहीं मिलते...
कुछ गुलाब ऐसे भी हैं,
जो हर शाखपें नही खिलते...!

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