11 July 2023

9701 - 9705 वक़्त हाथ शक़ अजीब हाथ धोख़ा क़ाम ख़त्म क़ाबू लक़ीर शक़ बात शायरी

 
9701
क़्यूँ शक़ क़रती हो,
ज़रा-ज़रासी बातपर...?
देख़ तेरी ही लक़ीर हैं,
मेरे दोनों हाथपर......

9702
हाथक़ी लक़ीरोंमें भी,
क़ितनी अजीब बात हैं...
हाथक़े अन्दर हैं,
पर क़ाबूसे बाहर.....!

9703
एक़ही बात,
इन लक़ीरोंमें अच्छी बात हैं ;
धोख़ा देती हैं मग़र,
रहती हाथोंमें ही हैं ll

9704
बात क़ामक़ी,
एक़ नहीं होती...
ख़त्म बातें मेरी लेक़िन,
तुमसे नहीं होती......

9705
एक़ वक़्त था ज़ब बाते ही,
ख़त्म नहीं होती थी...
आज़ सबक़ुछ ख़त्म हो गया,
मगर बात ही नहीं होती.......

No comments:

Post a Comment