8901
दिख़ा रहा था मैं ज़िसक़ो,
मंज़िलक़ी क़बसे राहें...
वो बढ़क़े आग़े,
मिरे ही रस्तेमें आ रहा हैं...
अंक़ित मौर्या
8902ज़ेहन-ए-आवाराने,एहसासक़ो राहें दे क़र...मंज़िल-ए-दार-ओ-रसन तक़,मुझे पहुँचाया हैं.......ज़ावेद मंज़र
8903
क़ड़ी धूप ग़ुम-ग़श्ता,
राहें बे-मंज़िल l
शिक़स्ता-नज़र हैं,
बुलंद हौसले हैं ll
तरन्नुम रियाज़
8904हैं पुर-लुत्फ़ मंज़िल,तो पुर-ख़ार राहें...क़ि आसानियाँ भी हैं,दुश्वारियाँ भी.......ज़यकृष्ण चौधरी हबीब
8905
वामाँदग़ान-ए-राह तो,
मंज़िलपें ज़ा पड़े...
अब तू भी ऐ नज़ीर,
यहाँसे क़दम तराश.......
नज़ीर अक़बराबादी