21 August 2018

3191 - 3195 मोहब्बत आँख उम्मीद सफर यार किनारा सहारा मझधार इल्जाम साहील माँझी रहबर मजा डर कश्ती शायरी


3191
तूने ही किया था मुझे,
मोहब्बतकी कश्तीमें सवार...
अब आँखें फेर,
मुझे डूबता भी देख.......

3192
उम्मीदें तैरती रहती हैं,
कश्तीयाँ डूब जाती हैं...!
कुछ घर सलामत रहते हैं,
आँधिया जब भी आती हैं...!

3193
मोहब्बतकी कश्तीमें...
जरा सोच समझकर, 
सफर करना यारो;
ये जब चलती हैं,
तो किनारा नहीं मिलता...
और...
जब डूबती हैं तो,
सहारा नहीं मिलता.......

3194
कश्ती कोई डूबती हैं,
जब मझधारमें सहारा नहीं मिलता;
इल्जाम इसका हमेशासे ही,
लहरोंपे हैं लगता...
लहर तो अपनेही मस्तीमें अकेली चलती हैं,
साहीलसे मिलने...
उसे क्या पता...
कौनसी कश्तीका सहारा,
छोड़ दिया अपनोनें...!

3195
माँझी,  रहबर,  हकमें हवाएं...
हैं कश्ती भी जर्जर, ये कैसा सफर हैं,
अलग ही मजा हैं फ़कीरीका अपना...
पानेकी चिंता खोनेका डर हैं.......!

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