5001
ये कश्मकश है ज़िंदगीकी,
कि कैसे बसर
करें...;
चादर बड़ी करें
या...
ख़्वाहिशे
दफ़न करे...!
5002
मेरी ख़्वाहिश है की,
मैं फिरसे
फरिश्ता हो जाऊँ...
माँसे इस
तरह लिपटूँ की,
बच्चा हो जाऊँ.......!
5003
बुलन्दियोंको पानेकी,
ख़्वाहिश
तो बहुत है
मगर;
दूसरोंको रोंदनेका,
हुनर कहाँसे
लाऊँ...
5004
हजारो ख़्वाहिशे ऐसी के...
हर ख़्वाहिशपे दम
निकले...!
5005
ख़्वाहिश तो रहती
है,
के सब मुझे
पहचाने !
लेकिन...
डर भी रहता
है कि,
कोई मेरी अस्लियत
ना पहचाने...!