1 November 2019

4966 - 4970 लहर कातिल सोच नजर मंज़िल मुसाफिर साहिल मजबूर किनारे शायरी


4966
सीखते रहे उम्रभर,
लहरोंसे लड़नेका हुनर;
हमें कहाँ पता था क़ि,
किनारे भी कातिल निकलेंगे...!

4967
बिखरे खुदको जोड़के,
हमने कश्ती बना डाला...
और उन्होंने खुदके,
किनारे ही बदल डाले...

4968
भलाई करते रहिए,
बहते पानीकी तरह...
बुराई खुद ही किनारे लग जाएगी,
कचरेकी तरह.......

4969
सोचको बदलो, सितारे बदल जायेंगे;
नजरको बदलो, नज़ारे बदल जायेगे;
कश्तियाँ बदलनेकी जरुरत नही...
दिशाओको बदलो, किनारे बदल जायेंगे...!

4970
खुद पुकारेगी मंज़िल,
तो ठहर जाऊँगा;
वरना मुसाफिर खुद्दार हूँ,
यूँ ही गुज़र जाऊँगा;
साहिलपे बैठे यूँ सोचते हैं,
आज कौन ज्यादा मजबूर है...
ये किनारा जो चल नहीं सकता या,
वो लहर जो ठहर नहीं सकती.......!

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