2941
उसे हम याद
आते हैं,
फ़ुरसतके लम्होंमें,
मगर...
ये भी हकीकत हैं,
उसे फ़ुरसत नहीं मिलती...!
2942
कहाँसे लाऊँ
हुनर उसे मनानेका,
कोई जवाब नहीं
था उसके रूठ
जानेका;
मोहब्बतमें सजा मुझे
ही मिलनी थी,
क्योंकि
जुर्म मेरा था
उनसे दिल लगानेका।
2943
वादा करके वो
निभाना भूल जाते
हैं,
लगाकर आग
फिर वो बुझाना
भूल जाते हैं;
ऐसी आदत हो
गयी हैं अब
तो उस हरजाईकी,
रुलाते तो हैं
मगर मनाना भूल
जाते हैं।
2944
नाराजगीका दौर भी,
थम जाएगा एक
दिन;
करोगे इंतजार,
जहांसे
हम गुजरा करते
थे...
2945
वो खुदपर
गरूर करते हैं,
तो इसमें हैरतकी
कोई बात नहीं...
जिन्हें
हम चाहते हैं,
वो आम हो
ही नहीं सकते...!
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