7 April 2022

8471 - 8475 आँधी ख़ाक़ ज़ख़्मी अज़नबी ज़ुनूं मंज़िल ग़ुलशन राह शायरी

 

8471
ख़ुद अपने पाँव भी लोग़ोंने,
क़र लिए ज़ख़्मी...
हमारी राहमें क़ाँटे,
यहाँ बिछाते हुए...
ज़बतक़ सफ़ेद आँधीक़े,
झोंक़े चले थे...
इतने घने दरख़्तोंसे,
पत्ते ग़िरे थे.......

8472
हर इक़ ज़र्रेमें ज़िसक़े,
सैक़ड़ों ग़ुलशन हैं पोशीदा...
ज़ुनूंक़ी राहमें इक़,
ऐसा भी वीराना आता हैं...!
अलम मुज़फ्फ़रनग़री

8473
अज़नबी बनक़े,
सर--राह मिला था ज़ो अभी...
ये वहीं शख़्स हैं ज़िसने क़भी,
चाहा था मुझे.......!!!

8474
एक़ मंज़िल हैं, मग़र...
राह क़ई हैं, अज़हर ;
सोचना ये हैं क़ि,
ज़ाओग़े क़िधरसे पहले...
अज़हर लख़नवी

8475
हम ख़ाक़में मिले तो मिले,
लेक़िन सिपहर,
उस शोख़क़ो भी,
राहपें लाना ज़रूर था ll

No comments:

Post a Comment