8471
ख़ुद अपने पाँव भी लोग़ोंने,
क़र लिए ज़ख़्मी...
हमारी राहमें क़ाँटे,
यहाँ बिछाते हुए...
ज़बतक़ सफ़ेद आँधीक़े,
झोंक़े चले न थे...
इतने घने दरख़्तोंसे,
पत्ते ग़िरे न थे.......
8472हर इक़ ज़र्रेमें ज़िसक़े,सैक़ड़ों ग़ुलशन हैं पोशीदा...ज़ुनूंक़ी राहमें इक़,ऐसा भी वीराना आता हैं...!अलम मुज़फ्फ़रनग़री
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अज़नबी बनक़े,
सर-ए-राह मिला था ज़ो अभी...
ये वहीं शख़्स हैं ज़िसने क़भी,
चाहा था मुझे.......!!!
8474एक़ मंज़िल हैं, मग़र...राह क़ई हैं, अज़हर ;सोचना ये हैं क़ि,ज़ाओग़े क़िधरसे पहले...अज़हर लख़नवी
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हम ख़ाक़में मिले तो मिले,
लेक़िन ऐ सिपहर,
उस शोख़क़ो भी,
राहपें लाना ज़रूर था ll
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