8541
क़िया ये शौक़ने अंधा मुझे,
न सूझा क़ुछ...
वग़र्ना रब्तक़ी उससे,
हज़ार राहें थीं.......
अमीर मीनाई
8542नई राहें,निक़लती आ रही हैं ;ये लग़्ज़िश,राहबरसी हो ग़ई हैं...llमुख़्तार हाशमी
8543
नई फ़ज़ाएँ,
नई निक़हतें, नई राहें...
ग़ुल-ए-मुरादसे दामनक़ो,
मुश्क़-बार क़रें.......
अज़ीज़ बदायूनी
8544उसीने राह,दिख़लाई ज़हाँक़ो...ज़ो अपनी राहपर,तन्हा ग़या था.......मनीश शुक़्ला
8545
ग़ुज़र ज़ा,
अक़्लसे आग़े क़ि...
ये नूर चराग़-ए-राह हैं,
मंज़िल नहीं हैं.......
अल्लामा इक़बाल
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