21 April 2022

8521 - 8525 धुआँ सफ़र क़ाफ़िले मंज़िल वक़्त बात दर्द आहिस्ता नज़र होश राहें शायरी

 

8521
राहें धुआँ धुआँ हैं,
सफ़र ग़र्द ग़र्द हैं...
ये मंज़िल--मुराद तो,
बस दर्द दर्द हैं.......
                     असद रज़ा

8522
नज़र मंज़िलपें हो,
तो इख़्तिलाफ़--राहक़ा ग़म क़्या ;
पहुँचती हैं सभी राहें वहीं,
आहिस्ता आहिस्ता.......
रुख़्साना निक़हत

8523
क़ैसी मंज़िल क़ैसी राहें,
ख़ुदक़ो अपना होश नहीं...
वक़्तने ऐसा उलझाया हैं,
अपने तानेबानेमें.......
                अरमान अक़बराबादी

8524
उठ उठक़े बैठ बैठ चुक़ी,
ग़र्द राहक़ी यारो...
वो क़ाफ़िले,
थक़े हारे क़हाँ ग़ए...?
हफ़ीज़ ज़ालंधरी

8525
आती हैं बात बात,
मुझे बार बार याद !
क़हता हूँ दौड़ दौड़क़े,
क़ासिदसे राहमें.......
                  दाग़ देहलवी

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