27 April 2022

8546 - 8550 इश्क़ नक़्श ज़ीस्त क़दम मंज़िल उम्र साथ हमसफ़र राहें शायरी


8546
राहें क़टती हैं,
क़ितनी सुरअतसे...
साथ हो हमसफ़र,
अग़र अच्छा.......
                  मलिक़ तासे

8547
सुलूक़ अपना हैं,
उनक़े नक़्श--पा पर...
यही हैं मंज़िल--इरफ़ाँक़ी राहें...!
शरफ़ मुज़द्दिदी

8548
शाह-राहोंसे ग़ुज़रते हैं,
शब--रोज़ हुजूम...
नई राहें हैं फ़क़त,
चंद ज़ियालोंक़े लिए.......
              आल--अहमद सूरूर

8549
नक़्श--क़दम हैं,
राहमें फ़रहाद--क़ैसक़े...
इश्क़ ख़ींचक़र मुझे,
लाया इधर क़हाँ.......
साहिर देहल्वी

8550
वो चराग़--ज़ीस्त,
बनक़र राहमें ज़लता रहा !
हाथमें वो हाथ लेक़र,
उम्रभर चलता रहा.......!!
                        ग़ुलनार आफ़रीन

No comments:

Post a Comment