4906
हिसाब किताब हमसे ना
पूछ,
अब ए ज़िन्दगी...
तूने सितम नहीं
गिने,
तो हमने
भी ज़ख्म नहीं
गिने...!
4907
ज़िन्दगीमें एक दूसरेके जैसा,
होना ज़रूरी
नहीं होता...
एक दूसरेके लिए
होना,
ज़रूरी होता हैं.......!
4908
क्या बेचकर हम तुझे
खरीदें,
ए ज़िन्दगी...
सब कुछ तो
गिरवी पड़ा हैं,
ज़िम्मेदारीके बाज़ारमें...
4909
मिलता तो बहुत
कुछ हैं,
इस जिन्दगीमें,
बस हम गिनती
उसीकी करते
हैं...
जो हासिल न हो
सका.......
4910
"इतना
क्यों सिखाए,
जा
रही हो ज़िन्दगी...
हमें कौन सी,
सदियाँ गुज़ारनी हैं यहाँ..."