18 October 2018

3441 - 3445 ज़िन्दगी ख्वाहिश नादान हद मुलाकात तालीम तलाशी ग़म इंतज़ार मुकम्मल शायरी


3441
ख्वाहिश बड़ी,
नादान होती हैं...
मुकम्मल होते ही,
बदल जाती हैं.......!

3442
वो भी क्या ज़िद्द थी,
जो तेरे-मेरे बीच एक हद थी...
मुलाकात मुकम्मल ना सही,
मुहब्बत बेहद थी.......!

3443
हमसे मुकम्मल हुई ना कभी,
जिन्दगी तालीम तेरी...
शागिर्द कभी हम बन सके,
और उस्ताद तूने बनने ना दिया...!

3444
घरकी इस बार,
मुकम्मल तलाशी लूंगा !
पता नहीं ग़म छुपाकर...
हमारे माँ बाप कहां रखते थे...?

3445
किश्तोंमें खुदकुशी,
कर रही हैं ये जिन्दगी;
इंतज़ार तेरा.......
मुझे मुकम्मल मरने भी नहीं देता !!!

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