3891
"लगता
हैं मेरी नींदका,
किसीके साथ
चक्कर चल रहा
हैं...
सारी-सारी रात,
गायब रहती हैं.......!"
3892
शाम कबकी
ढल चुकी हैं,
इन्तज़ारमें...
अब भी अगर
आ ज़ाओ तो,
ये रात बहुत
हैं.......!
3893
"तुझे
मैं चाँद कहूँ,
ये मुमकिन तो हैं...!
मगर लौग तुम्हे रातभर दैखें...
ये मुझे गँवारा
नहीं.......
3894
उमरें लगी कहते
हुए
दो लफ़्ज़
थे एक बात
थी.......
वो एक दिन, सौ सालका,
सौ सालकी वो रात
थी.......
3895
रातभर ये
मोगरेकी,
खुशबू कैसी थी...
अच्छा !
तो तुम आये
थे,
नींदोंमें मेरे
?
ग़ुलज़ार
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