9 February 2019

3891 - 3895 खुशबू लफ़्ज़ चाँद इन्तज़ार शाम गायब दिल नींद रात शायरी


3891
"लगता हैं मेरी नींदका,
किसीके साथ चक्कर चल रहा हैं...
सारी-सारी रात,
गायब रहती हैं.......!"

3892
शाम कबकी ढल चुकी हैं,
इन्तज़ारमें...
अब भी अगर  ज़ाओ तो,
ये रात बहुत हैं.......!

3893
"तुझे मैं चाँद कहूँ,
ये मुमकिन तो हैं...!
मगर लौग तुम्हे रातभर दैखें...
ये मुझे गँवारा हीं.......

3894
उमरें लगी कहते हुए
दो लफ़्ज़ थे एक बात थी.......
वो एक दिन, सौ सालका,
सौ सालकी वो रात थी.......

3895
रातभर ये मोगरेकी,
खुशबू कैसी थी...
अच्छा ! तो तुम आये थे,
नींदोंमें मेरे ?
                              ग़ुलज़ार

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