6571
कौन हैं जिसने मय नहीं चक्खी,
कौन झूठी क़सम उठाता हैं;
मयकदेसे जो बच निकलता हैं,
तेरी आँखोंमें डूब जाता हैं.......!
मिर्ज़ा ग़ालिब
6572
बाद-ए-तौबा
के भी हैं,
दिलमें यह हसरत
बाक़ी...
क़सम देके कोई
एक,
जाम पीला दे
हमको...
6573
तूने क़सम,
मय-कशीकी खाई हैं, ग़ालिब !
तेरी क़समका कुछ,
एतिबार नही हैं.......!
मिर्ज़ा ग़ालिब
6574
उसने सारी क़समेही,
मेरी झूठी खायी...
इसी लिए तो
हिचकी,
मुझे रुक रुक
कर आयी...!
6575
तेरी महफ़िल सजानेकी,
क़सम खाके बैठें हैं...
इसलिए अश्कोंको,
छुपाके बैठें हैं.......!
कृष्ण बिहारी नूर
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