6581
बे-इरादा टकरा गए थे,
लेहरोंसे हम...
समन्दरने क़सम खा ली हैं,
हमे डुबोनेकी.......
6582
वादोंके
समंदरमें,
क़सम बनकर आए;
वो क़सम टूटी
यूँ के,
डूबाकर चले गए...
6583
वो तेरा शरमाके मुझसे,
यूँ लिपट जाना...
क़समसे हर महीनेमें,
सावनसा अहसास देता था...!
6584
देखते हैं अब,
किसकी जान जायेगी...
उसने मेरी और
मैने उसकी,
क़सम खाई हैं.......!
6585
हर रोज़ खा जाते थे,
वो क़सम मेरे नामकी...
आज पता चला की,
जिंदगी धीरेधीरे, ख़त्म क्यूँ
हो रही हैं...!
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