23 February 2022

8271 - 8275 रूह ख़्याल अल्फ़ाज़ लफ़्ज़ ख़ामोशी मज़ाक़ ज़ज़्बात शायरी

 

8271
क़ई बार हम ज़ज़्बातोंमें आक़े,
क़ुछ क़ह तो देते हैं...
पर फ़िर ख़्याल आता हैं,
ना क़हते तो अच्छा था.......

8272
वो क़्या समझेग़ा,
ज़ज़्बात मेरे...
ज़िसने क़भी क़िसीक़ो,
रूहमें उतारा हीं हो.......

8273
अल्फ़ाज़ ग़िरा देते हैं,
ज़ज़्बातक़ी क़ीमत...
ज़ज़्बातक़ो लफ़्ज़ोंमें,
ढाला क़रे क़ोई.......

8274
समझने वाले तो,
ख़ामोशी भी समझ लेते हैं...!
समझने वाले ज़ज़्बातक़ा भी,
मज़ाक़ बना देते हैं.......

8275
ज़ज़्बातक़ी रौमें,
बह ग़या हूँ...
क़हना ज़ो था,
वो क़ह ग़या हूँ...
          शक़ील बदायुनी

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