8271
क़ई बार हम ज़ज़्बातोंमें आक़े,
क़ुछ क़ह तो देते हैं...
पर फ़िर ख़्याल आता हैं,
ना क़हते तो अच्छा था.......
8272वो क़्या समझेग़ा,ज़ज़्बात मेरे...ज़िसने क़भी क़िसीक़ो,रूहमें उतारा हीं न हो.......
8273
अल्फ़ाज़ ग़िरा देते हैं,
ज़ज़्बातक़ी क़ीमत...
ज़ज़्बातक़ो लफ़्ज़ोंमें,
न ढाला क़रे क़ोई.......
8274समझने वाले तो,ख़ामोशी भी समझ लेते हैं...!न समझने वाले ज़ज़्बातक़ा भी,मज़ाक़ बना देते हैं.......
8275
ज़ज़्बातक़ी रौमें,
बह ग़या हूँ...
क़हना ज़ो न था,
वो क़ह ग़या हूँ...
शक़ील बदायुनी
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