5721
छत टपकती हैं,
उसके कच्चे घरकी...
वो किसान फिरभी,
बारिशकी
दुआ करता हैं...!
5722
सारे इत्रोंकी खुशबू,
आज मन्द पड़
गयी;
मिट्टीपें
बारिशकी,
बूंदे जो चन्द
पड़ गयी ll
5723
घटाएं आ लगीं
हैं आँसमांपें,
दिन सुहाने हैं...
हमारी मजबूरी हमें,
बारिशमें
भी काग़ज़ कमाने
हैं...
5724
फितरत तो कुछ
यूँ भी हैं,
इंसानकी
साहब...
बारिश खत्म हो
जाये तो,
छतरी बोझ लगती
हैं.......
5725
आज सब इत्रोंका
दाम,
गिर गये हैं,
माटीको बारिशकी,
पहली बूंदोंने जो चूमा
हैं...!