क़हर बन ज़ाएँग़ी,
ये ख़ूनक़ी प्यासी राहें...
ज़िंदग़ी मुझमें सिमट ज़ा,
क़ि तिरा घर हूँ मैं.......
शमीम हनफ़ी
8802सफ़र ही बाद-ए-सफ़र हैं,तो क़्यूँ न घर ज़ाऊँ...मिलें ज़ो ग़ुम-शुदा राहें,तो लौटक़र ज़ाऊँ.......वहीद अख़्तर
8803
ज़ाती हैं तिरे घरक़ो,
सभी शहरक़ी राहें...
लग़ता हैं क़ि सब लोग़,
तिरी सम्त रवाँ हैं.......!!!
रशीद क़ैसरानी
8804भटक़े हुओंक़ी राहें तो,अक़्सर हैं हुई ग़म...क़ब मिलते उन्हें,अपनेही घर शामसे पहले...मरयम नाज़
8805
सूनी सूनी राहें हैं,
क़ैसे निक़लें घरसे लोग़...?
अली क़ाज़िम