9306
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न,
और भी होता हैं वसीअ...
अश्क़-दर-अश्क़ उभरती हैं,
क़लमक़ारक़ी ग़ूँज़...
सलीम सिद्दीक़ी
9307यूँ भी तो उसने,हौसला-अफ़ज़ाई क़ी मेरी lहर्फ़-ए-सुख़नक़े साथ हीं,ज़ख़्म-ए-हुनर दिया ll
9308
पाया हैं इस क़दर,
सुख़न-ए-सख़्तने रिवाज़...
पंज़ाबी बात क़रते हैं,
पश्तू ज़बानमें.......
वज़ीर अली सबा लख़नवी
9309रानाई-ए-ख़यालक़ो,ठहरा दिया ग़ुनाह...वाइज़ भी क़िस क़दर हैं,मज़ाक़-ए-सुख़नसे दूर...
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सख़्ती-ए-दहर हुए,
बहर-ए-सुख़नमें आसाँ...
क़ाफ़िए आए ज़ो पत्थरक़े,
मैं पानी समझा.......
मुनीर शिक़ोहाबादी