9 April 2018

2591 - 2595 जख्म निशां आदत आँख बेशक समझ याद मुकाबला रूह लब्ज साथ जीना शायरी


2591
जाने कितनी अजिय्यतसे,
खुद गुजरता हैं,
ये जख्म तब कहीं जाकर,
निशां बनाता हैं !!!

2592
मुझे रुला कर सोना तो
तेरी आदत बन गई हैं,
जिस दिन मेरी आँख ना खुली...
बेशक तुझे नींदसे नफरत हो जायेगी.......

2593
उस रातसे हमने,
सोना ही छोड़ दिया यारो...
जिस रात उसने हांके,
सुबह आँ खुलते ही मुझे भूल जाना...

2594
"बादलोंसे कह दो...
जरा सोच समझकर बरसे,
अगर मुझे उसकी याद गयी;
तो मुकाबला बराबरीका होगा..."

2595
मेरी रूहको छू लेनेके लिए,
बस कुछ लब्ज ही काफी हैं;
कह दो बस इतना ही के,
तेरे साथ जीना अभी बाकि हैं...!

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