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अब नई राहें ख़ुलेंग़ी,
मुझपर इम्कानातक़ी...
रम्ज़ मेरे तनपें,
ज़ाहिर मेरा सर होनेक़ो हैं...
मोहम्मद अहमद रम्ज़
9077न ज़ाने क़ौनसा ये शहर हैं,क़ि इसक़े बअद...हमारे ग़िर्द ज़ो राहें हैं,सब क़टीली हैं.......वाली आसी
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बेसर्फ़ा भटक़ रही थीं राहें,
हम नूर-ए-सहरक़ो ढूँड लाए ll
सूफ़ी तबस्सुम
9079ज़ोर-ए-बाज़ूक़ो ज़रा,उसक़े भी देख़ें क़्या हर्ज़...बंद राहें हैं ज़ो सब,क़ूचा-ए-क़ातिलक़े सिवा...वली-उल-हक़ अंसारी
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भुलाक़र भी वो फ़न्न-ए-शाइरीक़ी,
पुर-क़ठिन राहें...
नशात अपनी तबीअतक़ी,
ये ज़ौलानी नहीं ज़ाती...
निशात क़िशतवाडी