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क़ोई हंग़ामा-ए-हयात नहीं,
रात ख़ामोश हैं, सहर ख़ामोश l
वाहिद प्रेमी
9497इज़हार-ए-मुद्दआक़ा,इरादा था आज़ क़ुछ lतेवर तुम्हारे देख़क़े,ख़ामोश हो ग़या llशाद अज़ीमाबादी
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ख़ामोश हो ग़ईं,
ज़ो उमंगें शबाबक़ी,
फ़िर ज़ुरअत-ए-ग़ुनाह न क़ी,
हम भी चुप रहें.......
हफ़ीज़ ज़ालंधरी
9499ज़ाने क़्या महफ़िल-ए-परवानामें,देख़ा उसने lफ़िर ज़बाँ ख़ुल न सक़ी,शमा ज़ो ख़ामोश हुई llअलीम मसरूर
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छेड़क़र ज़ैसे,
गुज़र ज़ाती हैं दोशीज़ा हवा...
देरसे ख़ामोश हैं,
गहरा समुंदर और मैं.......
ज़ेब ग़ौरी