15 May 2023

9436 - 9440 राज़ ज़ख़्म तड़प दिल तमन्ना हिचक़ियाँ ज़ख़्म ज़ालिम शायरी


9436
राज़ दिलमें छुपाये रहते हैं,
अपने आँख़ोंसे छलक़ने नहीं देते...
क़्या ज़ालिम अदा हैं उस हसींक़ी,
ज़ख़्म भी देते हैं और तड़पने नहीं देते...

9437
दुनिया बड़ी ज़ालिम हैं,
हर बात छिपानी पड़ती हैं...
दिलमें दर्द होता हैं फ़िर भी,
होंठोंपर हंसी लानी पड़ती हैं...

9438
पलटक़र देख़ ये ज़ालिम,
तमन्ना हम भी रख़ते हैं,!
तुम अगर हुस्न रख़ती हो तो,
ज़वानी हम भी रख़ते हैं...!!!

9439
ज़ालिम ज़ख़्मपर,
ज़ख़्म दिए ज़ा रहा हैं l
शायद ज़ान गया हैं,
उसक़ी हर अदापे मरते हैं हम...ll

9440
ये ज़ालिम हिचक़ियाँ,
थमती क़्यूँ नहीं आख़िर...
क़िसक़े ज़हनमें आक़र,
यूँ थम सा गया हूँ मैं.......?

14 May 2023

9431 - 9435 इश्क़ वफ़ा दर्द नफरत ऐहसास क़ाफ़िर रुख़सार ज़ालिम शायरी

 

9431
इश्क़ सभीक़ो ज़ीना सीख़ा देता हैं,
वफ़ाक़े नामपर मरना सीख़ा देता हैं,
इश्क़ नहीं क़िया तो क़रक़े देख़ो,
ज़ालिम हर दर्द सहना सीख़ा देता हैं ll

9432
टूटा हो दिल तो दुःख़ तो ज़रूर होता हैं,
क़रक़े प्यार क़िसीसे यह दिल रोता हैं,
दर्दक़ा ऐहसास तो तब होता हैं,
ज़ब क़िसीसे इश्क़ हो ओर...
उस ज़ालिमक़े दिलमें और क़ोई होता हैं ll

9433
नफरत हैं मुझे आज़,
ज़ालिम तेरे उस रुख़सारसे...!
ज़िसे देख़क़र मैं,
अक्सर दीवाना हुआ क़रता था...!!!

9434
तू वो ज़ालिम हैं ज़ो,
दिलमें रहक़र भी मेरा न बन सक़ा...l
और दिल वो क़ाफ़िर ज़ो,
मुझमे रहक़र भी तेरा हो गया.......ll

9435
बर्बाद ना क़र ज़ालिम,
ठोक़रसे मज़ारोंक़ो...
इस शहर-ए-ख़ामोशाक़ो,
मर-मरक़े बसाया हैं.......

13 May 2023

9426 - 9430 मोहब्बत दीवाना ज़ालिम शायरी

 

9426
ये ज़ालिम मोहब्बत,
नूरक़ो भी बेनूर क़र देती हैं...
ज़िसक़े क़रीब रहना चाहो,
उससे ही दूर क़र देती हैं.......

9427
बहुत ज़ालिम हो तुम भी,
मुहब्बत ऐसे क़रते...
हो ज़ैसे घरक़े पिंज़रेमें,
परिंदा पाल रख़ा हो.......

9428
हज़ारों चाहने वाले हैं दीवाना नहीं मिलता...
ज़ो हम पर ज़ान भी वारे वो परवाना नहीं मिलता...
अज़ी हम तो बड़े ही शौक़से बरबाद हो ज़ाएं,
मुहब्बतक़ा मगर ज़ालिम ये नज़राना नहीं मिलता...

9429
अब ज़ो क़हती हो क़ि,
ज़ालिमसे बने बैठे हो...
तुम ज़रा याद क़रो,
मोहब्बत भी रहा हूँ मैं...

9430
तुम ज़ानती हो क़ी मैं बहुत ज़ालिम हूँ...
फ़िर इतना मोहब्बत क़्यों क़रती हो मुझसे,
तुम क़हती हो मोहब्बत बहुत असर रख़ती हैं,
और उसीसे मैं बदल डालुंगी तुम्हें.......

7 May 2023

9421 - 9425 सबेरा सूरज कदर तनहा मोहब्बत इश्क़ ज़ालिम शायरी

 

9421
सुनो ज़ालिम बहुत भाता हैं,
मुझे ये सबेरा...
बस सुबहका सूरज बनकर...
तुम मेरे साथ रहो.......

9422
इतने ज़ालिम बनो,
कुछ तो कदर करो...
तुम पर मरते हैं तो,
क्या मार ही डालोगे.......

9423
बड़े ज़ालिम थे मेरे सनम,
मोहब्बतकी लत लगाकर,
मुझे तनहा कर गया.......

9424
ये उदास शाम और,
तेरी ज़ालिम याद...
खुदा खैर करे,
अभी तो रात बाकि हैं...

9425
कोई और कर्ज होता,
तो उतार देता...
ये ज़ालिम इश्क़का कर्ज,
उतारा नही ज़ाता......

5 May 2023

9416 - 9420 ज़ुल्म आदत महबूबा आशिक़ क़फ़न ज़ालिम शायरी

 

9416
ज़ालिम थी वो और,
ज़ुल्मक़ी आदत भी बहुत थी...
मज़बूर थे हम उससे,
मोहब्बत भी बहुत थी.......
                               क़लीम आज़िज़

9417
ज़ब दूर ज़ाना ही था तो पास क़्यों आये,
ज़ब दिल तोडना ही था तो दिल क़्यों लगाये...
यूँ बहाना क़्यों बनाते हो पास ना आनेक़ा,
रुक़स्त ही रहना है तो दिलमें आश क़्यों बंधाये...

9418
ख़ुशी मुबारक़ हो तुमक़ो ओ महबूबा,
उदासी अब मेरी इक़ पेहचान बन गई l
तेरी बेवफ़ाई ओ ज़ालिम आज़,
तेरे इस आशिक़क़ी यही इक़ पेहचान बन गई ll

9419
देख़ना ज़ालिम एक़ दिन इतना दूर चला ज़ाऊंगा,
आवाज़ लगाओगी तो भी लौट क़र ना आऊंगा...l
देख़ा तेरा प्यार देख़ी तेरी वफ़ादारी,
ज़ब मेरा मूख़ देख़ोगी तो क़फ़न ओढ़क़र सो ज़ाऊंगा...ll

9420
क़ाश ये ज़ालिम ज़ुदाई ना होती,
ऐ ख़ुदा तूने ये चीज़ बनाई ना होती...
ना हमे वह मिलते ना प्यार होता,
अपनी ज़िन्दगी ज़ो थी वो आज़ पराई ना होती...

4 May 2023

9411 - 9415 रक़ीब ज़ुल्म ज़ालिम सुख़न शायरी

 
9411
ये रक़ीबोंक़ी हैं सुख़न-साज़ी,
बे-वफ़ा आप हों ख़ुदा न क़रे...
                       मर्दान अली खां राना

9412
क़ुछ न क़हनेसे भी,
छिन ज़ाता हैं एज़ाज़-ए-सुख़न...
ज़ुल्म सहनेसे भी,
ज़ालिमक़ी मदद होती हैं ll
मुज़फ़्फ़र वारसी 

9413
रेख़्ताक़े क़स्रक़ी,
बुनियाद उठाई ऐ 'नसीर' l
क़ाम हैं मुल्क़-ए-सुख़नमें,
साहिब-ए-मक़्दूरक़ा ll
                               शाह नसीर

9414
मुल्हिद हूँ अग़र मैं,
तो भला इससे तुम्हें क़्या...
मुँहसे ये सुख़न,
ग़ब्र ओ मुसलमाँ न निक़ालो...
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

9415
तिरे सुख़नक़े,
सदा लोग़ होंगे ग़िरवीदा,
मिठास उर्दूक़ी,
थोड़ी बहुत ज़बानमें रख़...!!!
                              मुबारक़ अंसारी

21 November 2022

9406 - 9410 मुसहफ़ी अंदाज़ सुख़न शायरी

 

9406
मुसहफ़ी तू और क़हाँ,
शेरक़ा दावा...
फबता हैं ये अंदाज़--सुख़न,
मीरक़े मुँहपर.......
               मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

9407
हाली सुख़नमें,
शेफ़्तासे मुस्तफ़ीद हैं l
ग़ालिबक़ा मोतक़िद हैं,
मुक़ल्लिद हैं मीरक़ा ll
अल्ताफ़ हुसैन हाली

9408
इसी तरहसे अग़र,
चाहता रहा पैहम...
सुख़न-वरीमें मुझे,
इंतिख़ाब क़र देग़ा...
               परवीन शाक़िर

9409
सुख़नक़े सारे सलीक़े,
ज़बाँमें रख़ता हैं l
नहींक़ा अक़्स निहाँ,
अपनी हाँमें रक़्ख़ा हैं ll
इनाम-उल-हक़ ज़ावेद

9410
हैं और भी दुनियामें,
सुख़न-वर बहुत अच्छे ;
क़हते हैं क़ि ग़ालिबक़ा हैं,
अंदाज़--बयाँ और ll
                         मिर्ज़ा ग़ालिब

19 November 2022

9401 - 9405 वक़्त ज़हाँ हुनर बात ज़वाँ पर्दा सुख़न शायरी

 

9401
घटा ज़ोर,
मश्क़--सुख़न बढ़ ग़ई...
ज़ईफ़ीने मुझक़ो,
ज़वाँ क़र दिया.......!

9402
क़िया था रेख़्ता,
पर्दा-सुख़नक़ा...
सो ठहरा हैं यहीं,
अब फ़न हमारा...
मीर तक़ी मीर

9403
सुनता हैं यहाँ क़ौन,
समझता हैं यहाँ क़ौन...?
ये शग़्ल--सुख़न,
वक़्त-ग़ुज़ारीक़े लिए हैं.......
                 अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी

9404
रू--सुख़न हैं क़ीधर,
अहल--ज़हाँक़ा या रब...
सब मुत्तफ़िक़ हैं,
इसपर हर एक़क़ा ख़ुदा हैं...!
मीर तक़ी मीर

9405
ज़ब मीर मीरज़ाक़े,
सुख़न राएग़ाँ ग़ए...
इक़ बे-हुनरक़ी बात,
समझी ग़ई तो क़्या...
                 इफ़्तिख़ार आरिफ़

18 November 2022

9396 - 9400 क़यामत राह दर्द तारीफ़ सुख़न शायरी

 

9396
रहता सुख़नसे,
नाम क़यामत तलक़ हैं ज़ौक़...
औलादसे तो हैं,
यहीं दो पुश्त चार पुश्त.......
                      शेख़ इब्राहींम ज़ौक़

9397
राह--मज़मून--ताज़ा बंद नहीं,
ता क़यामत ख़ुला हैं बाब--सुख़न...
वली मोहम्मद वली

9398
क़िसीक़े ज़ौर--मुसलसलक़ा,
फ़ैज़ हैं अख़्ग़र...
वग़रना दर्द हमारे,
सुख़नमें क़ितना था.......
                            हनीफ़ अख़ग़र

       9399
तुमक़ो दावा हैं,
सुख़न-फ़हमीक़ा...
ज़ाओ ग़ालिबक़े,
तरफ़दार बनो.......!
आदिल मंसूरी

9400
उस्तादक़े एहसानक़ा,
क़र शुक़्र मुनीर आज़...
क़ी अहल--सुख़नने,
तिरी तारीफ़ बड़ी बात.......!
                 मुनीर शिक़ोहाबादी

9391 - 9395 दिल सफ़र क़ारवाँ सुख़न शायरी

 

9391
निग़ह बुलंद सुख़न,
दिल-नवाज़ ज़ाँ पुर-सोज़ ;
यहीं हैं रख़्त--सफ़र,
मीर--क़ारवाँक़े लिए ll
                     अल्लामा इक़बाल

9392
मुँह बाँधक़र क़लीसा,
रह मेरे पास तू...
ख़ंदाँ होक़र क़े ग़ुलक़ी सिफ़त,
टुक़ सुख़नमें आ.......
फ़ाएज़़ देहलवी

9393
सुख़नक़े क़ुछ तो ग़ुहर,
मैं भी नज़्र क़रता चलूँ...
अज़ब नहीं क़ि,
क़रें याद माह साल मुझे...!
                               ज़ुबैर रिज़वी

9394
तिरे सुख़नमें नासेह,
नहीं हैं कैफ़िय्यत...
ज़बान--क़ुलक़ुल--मीनासीं,
सुन क़लाम--शराब.......
सिराज़ औरंग़ाबादी

9395
उसे भी ज़िंदग़ी,
क़रनी पड़ेग़ी मीर ज़ैसी...
सुख़नसे ग़र क़ोई,
रिश्ता निभाना चाहता हैं...!
                            हुमैरा राहत

16 November 2022

9386 - 9390 निग़ाह ज़िंदग़ी सवाल लफ़्ज़ क़हानी सुख़न शायरी

 

9386
उसने मिरी निग़ाहक़े,
सारे सुख़न समझ लिए...
फ़िर भी मिरी निग़ाहमें,
एक़ सवाल हैं नया.......
                     अतहर नफ़ीस

9387
आँख़से आँख़ मिलाना तो,
सुख़न मत क़रना l
टोक़ देनेसे क़हानीक़ा,
मज़ा ज़ाता हैं...ll
मोहसिन असरार

9388
लफ़्ज़क़ी बुहतात इतनी,
नक़्द फ़नमें ग़ई...
मस्ख़ होक़र सूरत--मअनी,
सुख़नमें ग़ई.......
                               क़ाविश बद्री

9389
सुख़न-सराई क़ोई,
सहल क़ाम थोड़ी हैं...
ये लोग़ क़िस लिए,
ज़ंज़ालमें पड़े हुए हैं.......
दिलावर अली आज़र

9390
सुख़नमें सहल नहीं,
ज़ाँ निक़ालक़र रख़ना...
ये ज़िंदग़ी हैं हमारी,
सँभालक़र रख़ना.......
                 उबैदुल्लाह अलीम

14 November 2022

9381 - 9385 क़िताब दिल ताज़गी सुख़न शायरी

 

9381
क़िताब--दिलक़ा,
मिरी एक़ बाब हो तुम भी...
तुम्हें भी पढ़ता हूँ मैं,
इक़ निसाबक़ी सूरत.......
                 अब्दुल वहाब सुख़न

9382
क़भी तो लग़ता हैं,
ग़ुमराह क़र ग़ई मुझक़ो...l
सुख़न-वरी क़भी,
पैग़म्बरीसी लग़ती हैं...ll
सुहैंल अहमद ज़ैदी

9383
ताज़गी हैं सुख़न--क़ुहनामें,
ये बाद--वफ़ात...
लोग़ अक़्सर मिरे,
ज़ीनेक़ा ग़ुमाँ रख़ते हैं...
                     इमाम बख़्श नासिख़

9384
वो इक़ सुख़न ही,
हमारी सनद बन ज़ाए l
वो इक़ सुख़न ज़ो तुम्हारी,
सनद नहीं रख़ता ll
अता तुराब

9385
सुख़नक़े चाक़में,
पिन्हाँ तुम्हारी चाहत हैं...
वग़रना क़ूज़ा-ग़रीक़ी,
क़िसे ज़रूरत हैं.......?
                 अरशद अब्दुल हमीद

13 November 2022

9376 - 9380 बहार मंज़िल मुक़द्दर सुख़न शायरी

 

9376
शग़ुफ़्ता बाग़--सुख़न हैं,
हमींसे साबिर...
ज़हाँमें मिस्ल--नसीम--बहार,
हम भी हैं.......
                          फ़ज़ल हुसैन साबिर

9377
मारे हयाक़े हमसे,
वो क़ल बोलता था...
हम छेड़ छेड़क़र उसे,
लाए सुख़नक़े बीच.......!!!
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

9378
रहिए अब ऐसी ज़ग़ह,
चलक़र ज़हाँ क़ोई हो l
हम-सुख़न क़ोई हो,
और हम-ज़बाँ क़ोई हो ll
                          मिर्ज़ा ग़ालिब

9379
बराए अहल--ज़हाँ,
लाख़ क़ज़-क़ुलाह थे हम ;
ग़ए हरीम--सुख़नमें तो,
आज़िज़ीसे ग़ए ll
इरफ़ान सत्तार

9380
मंज़िले-शेरो-सुख़न,
सबक़े मुक़द्दरमें क़हाँ...
यूँ तो हमने भी बहुत,
क़ाफ़िया-पैमाई क़ी.......