4301
जरा और कसकर थाम,
मेरी हथेलीको...
अच्छा लगता हैं इन लकीरोंका,
लकीरोंसे बात करना...!
4302
जला दिया हाथकी,
उन लकीरोंको ही यारों...
रोज मुझसे कहां करती
थी की,
वो
तेरी किस्मतमें
नहीं हैं...!
4303
दायरा, ज़िन्दगीके लिए,
हर बार बनाता
हूँ;
लकीरे वहीं रहती
हैं,
मैं खिसकता
जाता हूँ...
4304
और भी बनती लकीरें,
दर्दकी शायद...
शुक्र हैं तेरा रब,
जो हाथ छोटासा दिया...!
4305
काँटोंके कुछ निशान भी थे,
मेरे पैरोंमें...
पर लोग सिर्फ मेरे हाथोंकी,
लकीरें देखते रहे...!