5006
कभी जो फ़ुर्सत
मिले,
तो मुड़कर
देख लेना...
तुझे पानेकी
ख़्वाहिश,
मुझे आज भी हैं.......!
5007
ख़्वाहिशोंका मोहल्ला बड़ा
था,
हम जरूरतोंकी गलीसे मुड़ गये...
5008
जीनेकी ख़्वाहिश
थी,
लेकिन अब
नहीं है;
शिकवा भी तुमसे,
आखिर मैं क्यूँ
करूं...?
5009
ख़्वाहिशें
कम हो,
तो
पत्थरों पर भी
नींद आ जाती
हैं;
वरना मखमल का
बिस्तरभी,
चुभता हैं.......
5010
रात देर तक
तेरी ख़्वाहिश,
बैठी रहीं आँखोंकी
दहलीज़पर...
खुद न आना
था तो कोई,
ख़्वाब ही भेज
दिया होता...!