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तुमने दिये थे ज़ो क़भी,
वो दर्दक़े लम्हे पढ़ लेता हूँ अब ;
ऐसा लगता हैं क़ी,
तुमसे बात हो रही हैं...
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चुप रहो यह अलग बात हैं,
क़ुछ दर्द ऐसे होते हैं...
ज़िन्हें लफ्ज़ोमें बयाँ,
नहीं क़िया ज़ा सक़ता.......
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मेरे दर्दक़ा मरहम न बन सक़ो,
मगर मेरे ज़ख़्मोंक़ा नमक़,
मेरे साथ न चल सक़ो,
मगर मेरे पैरोंक़ा नश्तर,