1 July 2017

1451 - 1455 इश्क चाँद मुकद्दर गम सीने बदनाम तन्हा आँख परदे नम बात सिलसिले बुरा वक्त शायरी


1451
मेरा और उस "चाँद" का,
मुकद्दर एक जैसा हैं "दोस्त"...!
वो "तारों" में तन्हा,
मैं "यारों" में तन्हा.....।।

1452
सो जाओ मेरी तरह तुम भी,
गमको सीनेमें छुपाकर
रोने या जागनेसे कोई मिलता,
तो हम तन्हा ना होते।

1453
हुए बदनाम फिरभी,
ना सुधर पाये हम,
फिर वहीं इश्क; वहीं शायरी और...,
वहीं तुम।

1454
आँखोंके परदे भी नम हो गये हैं,
बातोंके सिलसिले भी कम हो गये हैं,
पता नहीं गलती किसकी हैं,
वक्त बुरा हैं या बुरे हम हो गये हैं !

1455
दौलत नहीं, शोहरत नहीं,
न 'वाह' चाहिए...
"कैसे हो"..?
दो लफ्जकी परवाह चाहिए...

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